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Description
वह पालक जो देर शाम कार्यालयों से घर लौटते है, उनका इंतज़ार करते-करते थक गए बच्चों से कितनी और क्या बातें करते होगे? दिन भर व्यस्त रहने वाले माता-पिता घर आकर पहले अपने बच्चों से विशिष्ट प्रश्न पूछते हैं, ‘क्या आप स्कूल गए थे? क्या आप ट्यूशन गए थे ? क्या आपने अपना गृहकार्य किया? तुमने खाना खाया?’ माता-पिता ऐसे प्रश्न पूछकर अपनी संतुष्टि प्राप्त करते हैं जो प्रश्न बच्चे नहीं चाहते। माता-पिता दोनों बच्चों के साथ खेलने, मौज-मस्ती करने आदि से दूर रहते हैं। पढ़ाई-लिखाई के इस चक्र से जिन बच्चों को समय मिलता है वे टीवी और मोबाइल फोन के दुष्चक्र में फंस जाते हैं। जब ढाई साल के बच्चे वाली मां बड़े आदर से कहती है, “हमारे राजा को मोबाइल के बारे में सारी जानकारी है। राजा मुझे मोबाइल के बारे में वह सारी जानकारी बताता है जो मैं नहीं जानती। राजा को मोबाइल पर गाने लगा दिए की वो तब तक गाने सुनता है, जब तक मेरा सारा काम हो जाता है…” भले ही यह सब ठीक है, प्रशंसनीय है। लेकिन मुझे समझ में नहीं आता कि बच्चों के जीवन में प्राकृतिक खेलों और मैदानी खेलों की उपेक्षा क्यों की जा रही है। यह किसका कसूर है कि ऐसे वातावरण के कारण बच्चे जिद्दी और एकाकी होते जा रहे हैं? जो स्थिति बन रही है उस स्थिति को नजर अंदाज करना संभव नहीं है। एक बात जो हर जगह दिखती है, वह यह कि आज के बच्चे अपनी उम्र से काफी आगे हैं। वे अपनी उम्र के आधार पर ऐसी हरकत करते हैं या यूं ही अनजाने में कोई शब्द या वाक्य फेंक देते हैं ताकि सामने वाला आश्चर्य में मुंह में उंगली डाले। समुभैया इस उपन्यास के माध्यम से बच्चों के ऐसे अद्भुत अनुभवों को एक साथ लाने की कोशिश की है।